*दिन 490 दोहा 127 अयोध्याकाण्ड*
*चौपाई:*
जगु पेखन तुम्ह देखनिहारे।
बिधि हरि संभु नचावनिहारे।।
तेउ न जानहिं मरमु तुम्हारा।
औरु तुम्हहि को जाननिहारा।।1।।
सोइ जानइ जेहि देहु जनाई।
जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई।।
तुम्हरिहि कृपाँ तुम्हहि रघुनंदन।
जानहिं भगत भगत उर चंदन।।2।।
चिदानंदमय देह तुम्हारी।
बिगत बिकार जान अधिकारी।।
नर तनु धरेहु संत सुर काजा।
कहहु करहु जस प्राकृत राजा।।3।।
राम देखि सुनि चरित तुम्हारे।
जड़ मोहहिं बुध होहिं सुखारे।।
तुम्ह जो कहहु करहु सबु साँचा।
जस काछिअ तस चाहिअ नाचा।।4।।
*दोहा:*
पूँछेहु मोहि कि रहौं कहँ मैं पूँछत सकुचाउँ।
जहँ न होहु तहँ देहु कहि तुम्हहि देखावौ ठाउँ।।127।।
*भावार्थः*
*{{ वाल्मीकि जी कहते है }} हे राम! जगत दृश्य है, आप उसके देखनेवाले हैं। आप ब्रह्मा, विष्णु और शंकर को भी नचानेवाले हैं। जब वे भी आपके मर्म को नहीं जानते, तब और कौन आपको जाननेवाला हैं? वही आपको जानता है जिसे आप जना देते हैं और जानते ही वह आपका ही स्वरूप बन जाता है। हे रघुनन्दन! हे भक्तों के हृदय के शीतल करनेवाले चंदन! आपकी ही कृपा से भक्त आपको जान पाते हैं। आपकी देह चिदानन्दमय है (यह प्रकृतिजन्य पंचमहाभूतों की बनी हुई कर्मबन्धनयुक्त, त्रिदेह-विशिष्ट मायिक नहीं है) और [उत्पत्ति-नाश, वृद्धि-क्षय आदि] सब विकारों से रहित हैं; इस रहस्य को अधिकारी पुरुष ही जानते हैं। आपने देवता और संतो के कार्य के लिये [दिव्य] नर-शरीर धारण किया है और प्राकृत (प्रकृति के तत्वों से निर्मित देहवाले, साधारण) राजाओं की तरह से कहते और करते हैं। हे राम! आपके चरित्रों को देख और सुनकर मूर्ख लोग तो मोह को प्राप्त होते हैं और ज्ञानीजन सुखी होते हैं। आप जो कुछ कहते, करते हैं, वह सब सत्य (उचित) ही हैं; क्योंकि जैसा स्वांग भरे वैसा ही नाचना भी तो चाहिये (इस समय आप मनुष्य रूप में हैं, अतः मनुष्योचित व्यवहार करना ठीक ही हैं)। आपने मुझसे पूछा कि मैं कहाँ रहूँ? परंतु मैं यह पूछते सकुचाता हूँ कि जहाँ आप न हों, वह स्थान बता दीजिये। तब मैं आपके रहने के लिये स्थान दिखाऊँ।*