सीना 56 इंच का हो तो क्या फर्क पड़ता है अगर उसमें हृदय न हो?

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सीना 56 इंच का हो तो क्या फर्क पड़ता है अगर उसमें हृदय न हो?

*जब राजीव गांधी की हत्या हुई तो अटल बिहारी वाजपेयी बड़े भावुक हुए और एक राज खोला- “आज अगर मैं जिंदा हूं तो राजीव गांधी की बदौलत।”*

*1988 की बात है। अटल बिहारी सांसद हुआ करते थे। उनको किडनी की बीमारी हो गई। इसके बारे में बहुत कम लोगों को पता था। इसका इलाज विदेश में हो सकता था लेकिन उनके पास इतने पैसे नहीं थे कि कहीं विदेश जाकर ढंग से इलाज करा लें। यह बात कहीं से राजीव गांधी को पता चली। राजीव गांधी ने अटल को बुलवाया और उनसे आग्रह किया कि आप न्यूयार्क में हो रहे संयुक्त राष्ट्र के सम्मेलन में शामिल होंगे तो मुझे खुशी होगी। आप प्रतिनिधिमंडल में शामिल हो जाइए। अटल न्यूयार्क गए तो राजीव गांधी ने वहां उनके इलाज की भी व्यवस्था करा दी। अटल स्वस्थ होकर वापस लौटे।*

*जब राजीव गांधी की हत्या हुई तो अटल बिहारी वाजपेयी ​ने करण थापर से एक इंटरव्यू में भावुक होते हुए कहा- “राजीव गांधी की असमय मौत मेरे लिए व्‍यक्तिगत क्षति भी है। राजीव जी ने कभी भी राजनीतिक मतभेदों को आपसी संबंधों पर हावी नहीं होने दिया। मैंने अपनी बीमारी की बात ज्‍यादातर लोगों को नहीं बताई थी लेकिन राजीव गांधी को किसी तरह से इस बारे में पता चल गया। उसके बाद उनकी मदद के कारण ही मैं स्‍वस्‍थ हो पाया।”*

*जब सोनिया गांधी के विदेशी मूल का मुद्दा उठाकर भाजपाई नंगा नाच रहे थे। इस मसले पर अटल चुप थे। पत्रकारों ने पूछा कि आप कुछ क्यों नहीं बोल रहे। उन्होंने कहा कि “मेरा मुंह मत खुलवाओ। जब प्रधानमंत्री राजीव ने विदेश भेजकर मेरा इलाज करवाया था तब यह सोनिया गांधी ही थीं जो समय-समय पर मेरा हालचाल लेने मेरे घर आती थीं। मैं चुप रहूं, यही बेहतर है।” आज राजीव गांधी की जयंती पर यह कहानी फिर याद आई।*

*उस दौर तक नेता सौम्य, शालीन, उदार और कम से कम सार्वजनिक जीवन में आदर्श स्थापित करने की कोशिश करते थे। वह दौर अब जा चुका है। उन्हीं राजीव गांधी की पत्नी और विपक्ष की दिग्गज नेता सोनिया गांधी कोरोनाग्रस्त थीं, अस्पताल से निकलीं तो एक बोगस केस में ईडी ने उनसे तीन दिन पूछताछ की। वह भी अपने दफ्तर बुलाकर। केस भी ऐसा जो कई साल पहले बंद हो चुका था। सिर्फ सोनिया गांधी ही नहीं, आज मोदी सरकार हर विपक्षी नेता को निशाना बना रही है।*

*इस देश ने अपना सफर वहां से शुरू किया था जहाँ नेहरू ने अपने धुर विरोधी श्यामा प्रसाद मुखर्जी को अपने मंत्रिमंडल में शामिल किया था। बावजूद इसके कि मुखर्जी समेत पूरा संघ आज़ादी आंदोलन से दूर रहकर अंग्रेजों का साथ दे रहा था। सरदार पटेल की चिट्ठियों से पता चलता है कि ये लोग दंगा-फसाद में भी लिप्त थे, फिर भी इनका सम्मान किया गया। आज हम वहां पहुँच गए हैं जहाँ पार्टी तो छोड़िये आम लोग भी अगर सरकार से असहमति जतायें तो उनको दण्डित किया जाता है।*

*मूर्तियां ऊँची होने लगीं और लोग बौने हो गए।*
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