डॉ सत्येन्द्र शर्मा का “यह कैसा सावन आया”

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सावन कैसा आया

सावन कैसा आया भाई ,
यह कैसा सावन आया ।
दैत्य झूमते हैँ मस्ती में,
यमदूतों का है साया ।

झूले कहां बहे बाढ़ों मेें,
क्या शहरों क्या गांवों में ।
सड़कें कहां धुल गयीं अब सब ,
लोग तैरते नावों में ।।

भाग रहे हैँ तैर रहे हैँ,
मानव पशु अति ऊब गये ।
ऐसी बाढ़ भयंकर आई ,
इक झटके में डूब गये ।।

मची हुई है उथल-पुथल सब ,
कौन झूलते हैं झूले ।
राह नहीं है कहीं, पथिक अब ,
फिरते हैं भटके भूले ।।

फैली है दुर्गंध शहर में,
नाले घर में बहते हैँ।
बार-बार ऐसा ही सावन ,
वही कहानी कहते हैँ ।।

वृक्ष बिछ गये टूट गये पुल ,
परिवर्तित मौसम छाया ।
हद की गर्मी हद की सर्दी ,
आखिर कौन इसे लाया ।।

कोस रहे हैँ हम कुदरत को ,
कुदरत हमको कोस रही ।
अपने ही दिल से हम पूछें,
कौन गलत है कौन सही ।।

हमने स्वयं कुल्हाड़ी मारी ,
है अपने ही पैरों को ।
वृक्षारोपण गया भाड़ में,
दोष दे रहे गैरों को ।।

जनसँख्या की सीमा लांघी ,
बद से बदतर हाल हुआ।
मनन करें हम गहराई से ,
क्यों जी का जंजाल हुआ ।

जंगल प्रतिदिन कटते रहते ,
प्रकृति हुई अति क्रोधित है ।
दोहन की तो हद कर डाली ,
भारतमाता शोषित है ।।

स्वरचित, मौलिक ।
डा.सत्येन्द्र शर्मा ,पालमपुर हिमाचल। 

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कर्म ही परिचय

दीपक जलता है सदा ,जलना उसका काम ।
परिचय उसका है यही ,कर्म करे निष्काम। ।

बिना कर्म फल चाहते ,कंटकमय यह राह ।
रोटी से वंचित रहो ,निकल जाएगी आह ।।

कर्मयोग कुछ सीख ले ,आलस को अब त्याग।
बाद बाद में टाल मत , जपो कर्म का राग ।

फल की इच्छा मत करो ,कर्मों की कर बात ।
जुट जा अपने कर्म में , होने को है रात ।।

फल पर तेरा वश नहीं, कर्मों पर अधिकार।
दीन-दुखी पर ध्यान दे , कर ले कुछ उपकार। ।

आलस ने तोड़ा तुझे ,छूट चुकी है रेल ।
छुक-छुक लौटेगी नहीं, खत्म हो चुका खेल ।।

कर्म करो अच्छे करो , दुष्कर्मों से दूर ।
मौज करो मस्ती करो , फिर खाओ भरपूर ।।

परिचय की क्या बात है , कर ले सुथरे काम ।
तेरा परिचय है यही ,

यह है तेरा नाम ।।

स्वरचित, मौलिक ।
डा.सत्येन्द्र शर्मा, पालमपुर, हिमाचल ।

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 चला-चली का मेला

तेरा टिकिट कट चुका घर से ,
जल्दी से घर कर खाली ।
चाबी पकड़ा अभी बहू को ,
बदल चुका है अब माली ।।
पर उपकार किया है यदि कुछ,
दीन -दुखी को दी रोटी ,
साथ यही जाएगी गठरी ,
अन्य नहीं जाने वाली ।।

स्वरचित , मौलिक ।
डा.सत्येन्द्र शर्मा ,पालमपुर ,हिमाचल ।

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 शहीद भाई

भाई था अनमोल , कहाँ से भाई लाऊँ ।
घूमी शहर बजार , किसे मै दिल दिखलाऊँ ।।
राखी का त्योहार , किसे मै राखी बांधूँ ।
किससे बांटूँ प्यार , कहाँ मै अश्रु छुपाऊँ ।।

स्वरचित, मौलिक।
डा.सत्येन्द्र शर्मा, पालमपुर, हिमाचल ।

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रक्षाबंधन

रेशम की यह नाजुक डोरी ,
लोहे की जंजीर बनी ।
प्यार बंधा आपस में ऐसा ,
भाई की तकदीर बनी ।।

रक्षा का बंधन मनभावन ,
पावन गंगाजल सा है ।
झरना झरता अमर प्रेम का ,
जलधारा अविरल सा है ।।

भैया सैनिक बना बहिन अब ,
फूली नहीं समाती है ।
टीका अक्षत अर्पण करती ,
मुँह मीठा करवाती है ।।

रिश्ता है अनमोल प्रेम का ,
स्नेह बांधती धागे में।
याद सदा करती भाई को ,
सोते में या जागे में ।।

स्वरचित, मौलिक।
डा.सत्येन्द्र शर्मा, पालमपुर ,हिमाचल ।

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बांग्लादेश में मारकाट

देवालय नित तोड़ते,होता नित्य प्रहार।
हद का अत्याचार है , हिंदू नरसंहार। ।
हिंदू नरसंहार , जलाते हैँ घर उनका ।
काट रहे हैँ रोज ,छोड़कर टोपी बुर्का। ।
प्रगति देखकर देश की , जलें पड़ौसी देश ।
सज्जन औ खुर्शीद अब , बस लें जल्द विदेश ।।

स्वरचित, मौलिक।
डा.सत्येन्द्र शर्मा ,पालमपुर, हिमाचल ।
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हर घर तिरंगा

आज तिरंगा फहराता है ,
हर घर मेें लहराता है ।
तीन रंग का अति लुभावना ,
सबके मन को भाता है ।।
क्या सुभाष क्या सावरकर ने ,
कष्ट सहे अगणित कितने ।
आजादी कैसे पायी है ,
इसकी याद दिलाता है ।।

अद्भुत शान निराली इसकी ,
झूम रहा यह मस्ती में।
हर घर झंडा मस्त डोलता ,
शहर गांव हर बस्ती में ।।
प्रगति मार्ग पर बढ़ते जाएं,
तब विकसित हो पाएंगे।
दुनिया इसका माने लोहा ,
फर्क पड़े ना हस्ती में ।।

स्वरचित, मौलिक।
डा.सत्येन्द्र शर्मा ,पालमपुर, हिमाचल ।

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दम्भ कुण्डलिया छंद

गिरते पल्लव कह रहे , छणभंगुर पहचान ।
जो आया सो जाएगा ,दम्भ त्याग इंसान ।।
दम्भ त्याग इन्सान ,अहं किसका रह पाया ।
वह तो था दसशीष ,शीष सारे कटवाया ।।
बोले जब जब झूठ , भंवर में फंसते घिरते ।
थी सम्पति अकूत, गगन से नीचे गिरते ।।

स्वरचित, मौलिक।
डा.सत्येन्द्र शर्मा , पालमपुर, हिमाचल ।

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