हिन्दी दिवस पर विशेष तांटक छंद
तुलसी सूर कबीर अमर कृति ,
यह सुहाग की बिंदी है ।
भारतेन्दु भूषण को बांचें ,
घोल रही मधु हिन्दी है ।।
देवी-महा मैथली शंकर,
अमिट एकता लायी है ।
पूरब पश्चिम उत्तर दक्षिण,
महिमा अद्भुत छायी है ।।
विद्यापति की पदावली है ,
जन जन की यह भाषा है ।
बने सुमित्रा पंत शिखर यह ,
यही रही अभिलाषा है ।।
प्रेमचंद औ पढ़ो गुलेरी ,
गंगा की रसधारा है ।
स्वर व्यंजन आसान अत्यधिक,
उच्चारण अति प्यारा है ।।
सरल सादगी की देवी यह ,
कोमल मधु सी वाणी है ।
दम्भ रहित ममता का सागर ,
कामधेनु कल्याणी है ।।
दादी नानी की बोली यह ,
मेरी माँ की बोली है ।
कृपा कर रहीं मात शारदे ,
यह ललाट की रोली है ।।
सिक्के का दूसरा पहलू
घर में हुई पराई हिंदी ,
पिछवाड़े में रोती है ।
गिटपिट गिटपिट क्या है बक-बक,
दामन अश्रु भिगोती है ।।
गया जमाना राम-राम का ,
गुड-माडमाॅनिगं अब होती है।
क्या स्वीटी क्या डौली अब तो ,
गुड-नाइट कर सोती है ।।
सारे जग में मान बढ़ा है ,
अपने घर पिट जाती हूँ।
वो खाती है हलुवा पूरी,
मै भूखी सो जाती हूँ ।।
तिरस्कार है खुद के घर में,
सौतन मौज उड़ाती है ।
अंग्रेजी महलों की रानी ,
हँसती जीभ चिढ़ाती है ।।
होता है सम्मान सौत का ,
मै अपमानित होती हूँ ।
उसका मुखड़ा इतना सुंदर,
मै दुखड़े में रोती हूँ ।।
महफ़िल में डिस्को पर थिरकन ,
संस्कृति को हर लेती है ।
अंग्रेज़ी दिन-रात नाचती ,
प्राणहीन कर देती है ।।
स्वरचित, मौलिक।
डा.सत्येन्द्र शर्मा, पालमपुर,हिमाचल।