रैम्बो_सुधीर_वालिया_को_नमन

लेखक हिमांशु मिश्रा एडीशनल एडवोकेट जनरल हिमाचल प्रदेश

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बी के  सूद मुख्य संपादक

Bksood chief editor

“सर, आप जानते हैं कि मैं एक पहाड़ी हूं। मुझे पहाड़ की लड़ाई के लिये ढलने की आवश्यकता नहीं है।”

कारगिल की लड़ाई आधिकारिक रूप से समाप्त हो गयी थी लेकिन कुछ जगह पर पाकिस्तान प्रयोजित आतंकवादी अभी भी कब्जा जमाए बैठे थे । ऐसे में एकाएक सूचना मिलने पर जब मेजर सुधीर वालिया से जुलू टॉप पर हमले को तैयार रहने को कहा तो उनकी यह त्वरित टिप्पणी आज भी हिमाचल के नौजवानों के जज्बे को ही प्रतिलक्षित करती है ।

भारतीय सेना के सबसे सुसज्जित सैन्य अधिकारी मेजर सुधीर वालिया को जनवरी 2000 में तत्कालीन राष्ट्रपति स्वर्गीय के.आर. नारायण द्वारा भारत के सर्वोच्च शांतिकालीन सैन्य अलंकरण अशोक चक्र से सम्मानित किया गया था । इसके अतिरिक्त उन्हें सेना मेडल रिबन , सेना मेडल (बार) से अभी आलंकृत किया गया था ।

रैम्बो नाम से अपने साथियों के बीच जाने वाले मेजर सुधीर वालिया का जन्म 24 मई 1969 को हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले के बनुरी पालमपुर यानि मेरे पैतृक गांव में सेना के ही सेवानिवृत सूबेदार मेजर रुलिया राम वालिया और श्रीमती राजेश्वरी देवी के घर हुआ था।

उन्होंने सुजानपुर टीहरा के सैनिक स्कूल में पढ़ाई की। इसके बाद उन्होंने राष्ट्रीय रक्षा अकादमी, खडकवासला में प्रवेश प्राप्त किया।

सुधीर ने भारतीय सैन्य अकादमी से स्नातक की उपाधि प्राप्त की और 11 जून 1988 को चौथी बटालियन, जाट रेजिमेंट में दूसरे लेफ्टिनेंट के रूप में कमीशन प्राप्त किया।

वह भारतीय शांति सेना (आईपीकेएफ) के सदस्य थे जिन्हें शांति मिशन पर श्रीलंका भेजा गया था। श्रीलंका से लौटने के बाद, उन्हें 9वीं बटालियन, पैरा (विशेष बल) इकाई में ले जाया गया, जो भारतीय सेना का एक विशेष बल है जो पर्वतीय अभियानों में माहिर है। उन्होंने सियाचिन ग्लेशियर में दो छह महीने की सेवा भी की। उन्हें 11 जून 1990 को लेफ्टिनेंट पदोन्नत किया गया था।

वालिया को 11 जून 1993 को कप्तान पदोन्नत किया गया था, और 1994 में जम्मू और कश्मीर में उग्रवाद का मुकाबला करने के लिए दो मौकों पर वीरता के लिए सेना पदक से सम्मानित किया गया था। 1997 में, उन्हें एक विशेष पाठ्यक्रम के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका भेजा गया और प्रथम स्थान प्राप्त किया। उन्होंने इस मिशन के दौरान पेंटागन अमरीकी सैन्य मुख्यालय में भी उन्हें प्रशिक्षण लेने का मौका मिला ।

प्यार से और अपनी योग्यता के सम्मान में, उन्हें उस दौरान ‘कर्नल’ कहा जाता था।

बाद में उन्हें सेनाध्यक्ष जनरल वेद प्रकाश मलिक के सहयोगी-डे-कैंप (एडीसी) के रूप में प्रतिनियुक्त किया गया। जब कारगिल युद्ध छिड़ गया, तो उन्होंने युद्ध के मैदान में जाने के लिए सीओएएस से विशेष अनुमति प्राप्त की। दिल्ली से अपने प्रस्थान के दस दिनों के भीतर, उन्होंने मुशकोह घाटी सेक्टर में 5200 मीटर पर ज़ुलु टॉप पर कब्जा करने के लिए अपनी टीम का नेतृत्व किया।

कारगिल युद्ध समाप्त होने के बाद, उनकी टीम को जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद से लड़ने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी।

29 अगस्त 1999 को, उन्होंने जम्मू और कश्मीर में कुपवाड़ा जिले के हाफरुदा जंगलों में एक आतंकवादी ठिकाने पर हमले का नेतृत्व किया। उसने इस प्रक्रिया में कुल 20 आतंकवादियों में से 9 को मार गिराया और गोलियों से घायल हुए। हालाँकि वह हिलने-डुलने में असमर्थ थे , फिर भी उसने अपनी टीम को तब तक आदेश देना जारी रखा जब तक कि वे सफल नहीं हो गए। ऑपरेशन खत्म होने के 35 मिनट बाद ही उन्होंने खुद को खाली करने दिया। उन्हें सेना के बेस अस्पताल में ले जाया गया, लेकिन रास्ते में ही उन्होंने दम तोड़ दिया। उनकी बहादुरी के लिए, उन्हें मरणोपरांत अशोक चक्र से सम्मानित किया गया, जो भारत में शांति के समय का सर्वोच्च सैन्य अलंकरण है।

पालमपुर में उनका स्मारक भी अगली पीढ़ी को प्रेरणा हेतु जनता को समर्पित है ,वही बनूरी के स्कूल का नाम अब आपके ही नाम से है ।

पालमपुर के ही अमर शहीद कैप्टन सौरभ कालिया , अमर शहीद कैप्टन विक्रम बत्रा , अमर शहीद राकेश कुमार ने पूरे देश के अनेक सैनिकों के साथ अपने जीवन का अमर बलिदान भारत माता की रक्षा में न्योछावर कर कारगिल में विजय दिलवाई थी ,उसी परिपाटी को मेजर सुधीर वालिया ने अपनी वीरता से आगे बढाया है । हुतात्मा अमर शहीद मेजर सुधीर वालिया को शत शत नमन ,श्रद्धांजलि ।

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