मुख्यमंत्री सुक्खू कभी हार नहीं मानेंगे, मुख्यमंत्री की दूरदर्शिता छात्रों के लिए वरदान, हिमाचल में शिक्षा सुधार की राह में रोड़ा बने राज्यपाल, करोड़ों रुपए खर्च राज्य सरकार और राज्यपाल का एकाधिकार कदापि सहन नहीं होगा
अनुभव की अग्नि में तप कर कुंदन बने हैं मुख्यमंत्री सुक्खू
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हिमाचल में शिक्षा सुधार की राह में रोड़ा बने राज्यपाल, मुख्यमंत्री की दूरदर्शिता छात्रों के लिए वरदान
राज्यपाल बनाम राज्य सरकार: विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति का अधिकार किसका?
हिमाचल प्रदेश में उच्च शिक्षा प्रशासन को लेकर एक गंभीर विवाद गहराता जा रहा है। यह बहस लंबे समय से चली आ रही है कि राज्य के विश्वविद्यालयों का कुलाधिपति (चांसलर) कौन होना चाहिए—राज्यपाल या मुख्यमंत्री?
जब राज्य सरकार प्रदेश के विद्यार्थियों की शिक्षा पर प्राथमिक विद्यालय से लेकर विश्वविद्यालय स्तर तक करोड़ों रुपये खर्च कर रही है, तो फिर केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त राज्यपाल को विश्वविद्यालयों के प्रशासनिक अधिकार सौंपना कितना न्यायसंगत है?
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राज्यपाल की मनमानी और विश्वविद्यालयों का ठप प्रशासन
हाल ही में प्रदेश के सबसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में से एक चौधरी सरवन कुमार हिमाचल प्रदेश कृषि विश्वविद्यालय (CSK HPKV) में कुलपति की नियुक्ति को लेकर उपजा गतिरोध इसी मुद्दे को उजागर करता है।
राज्य सरकार ने विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता सुनिश्चित करने और शिक्षा की गुणवत्ता बनाए रखने के लिए “यूनिवर्सिटी संशोधन विधेयक” दो बार विधानसभा में पारित किया, ताकि राज्य सरकार को कुलपति की नियुक्ति करने का अधिकार प्राप्त हो। लेकिन राज्यपाल ने कथित मनमानी करके अपने मनमर्जी के उम्मीदवार को यूनिवर्सिटी पर थोपने हेतु बिल को मंजूरी देने से इनकार कर दिया, जिससे विश्वविद्यालयों में प्रशासनिक अव्यवस्था फैल गई।
सुक्खू सरकार की मंशा स्पष्ट थी—हिमाचल प्रदेश के विश्वविद्यालयों को एक मजबूत, पारदर्शी और राज्य के हित में संचालित करने वाला प्रशासन देना। मगर राज्यपाल की हठधर्मिता के कारण यह विधेयक बार-बार लंबित पड़ा रहा, जिससे विश्वविद्यालय के हजारों छात्रों को अनिश्चितता और असमंजस का सामना करना पड़ रहा है।
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मुख्यमंत्री की दूरदृष्टि और छात्रों को न्याय दिलाने की कोशिश
हिमाचल प्रदेश में जब से कांग्रेस सरकार बनी है, उच्च शिक्षा को बेहतर बनाने के लिए कई ऐतिहासिक फैसले लिए गए।
विशेष रूप से मुख्यमंत्री ठाकुर सुखविंदर सिंह सुक्खू ने छात्रों की समस्याओं को ध्यान में रखते हुए HPKV सहित अन्य विश्वविद्यालयों में पारदर्शी और न्यायसंगत प्रशासन लागू करने के लिए कड़ा रुख अपनाया।
उनकी सरकार ने दो बार यूनिवर्सिटी संशोधन विधेयक विधानसभा में पारित किया ताकि राज्यपाल के अनावश्यक हस्तक्षेप को समाप्त किया जा सके और विश्वविद्यालयों के कुलपति की नियुक्ति का अधिकार राज्य सरकार को मिले।
मुख्यमंत्री की इस पहल को प्रदेशभर के छात्रों और शिक्षकों का भरपूर समर्थन मिला। उन्होंने बार-बार कहा कि जब राज्य सरकार विश्वविद्यालयों की शिक्षा व्यवस्था पर करोड़ों रुपये खर्च कर रही है, तो फिर कुलपति की नियुक्ति का अधिकार भी राज्य सरकार को ही होना चाहिए। इससे न केवल शिक्षा व्यवस्था सुचारू होगी, बल्कि विश्वविद्यालयों में व्याप्त अव्यवस्थाओं को भी समाप्त किया जा सकेगा।
शिक्षा के राजनीतिकरण का अंत जरूरी
यह पहली बार नहीं है जब राज्यपाल की मनमानी से हिमाचल प्रदेश को नुकसान हुआ है। पहले भी कई महत्वपूर्ण विधेयक राज्यपाल के हस्ताक्षर के अभाव में ठंडे बस्ते में डाल दिए गए।
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यह समस्या केवल हिमाचल प्रदेश तक सीमित नहीं है, बल्कि कई अन्य राज्यों में भी यही स्थिति देखी गई है। यह सवाल उठना लाज़मी है कि जब राज्य सरकार ही शिक्षा की वित्तीय और प्रशासनिक जिम्मेदारी उठाती है, तो फिर राज्यपाल क्यों विश्वविद्यालयों के सर्वोच्च पदाधिकारी बने रहें? भारत के कई राज्यों में राज्य वालों से यह अधिकार छीन लिया गया है कभी राज्य सरकारों की खुद की मर्जी से और कहीं सुप्रीम कोर्ट के आदेश से।
मुख्यमंत्री ठाकुर सुखविंदर सिंह सुक्खू की दूरदृष्टि और नेतृत्व क्षमता ने यह साबित कर दिया है कि उनकी सरकार छात्रों और शिक्षा व्यवस्था के उत्थान के लिए पूरी तरह प्रतिबद्ध है।
उन्होंने इस मुद्दे को केवल राजनीतिक विवाद नहीं बनने दिया, बल्कि इसे एक गंभीर प्रशासनिक समस्या के रूप में उठाकर न्याय के लिए संघर्ष किया।
अब जरूरत इस बात की है कि केंद्र सरकार राज्यपाल की भूमिका को पुनर्परिभाषित करे और राज्य सरकारों को उनके अधिकार सौंपे, ताकि उच्च शिक्षा संस्थान किसी भी राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त होकर सुचारू रूप से संचालित हो सकें।
प्रदेश के छात्रों और अभिभावकों को उम्मीद है कि मुख्यमंत्री का यह संकल्प सफल होगा और जल्द ही हिमाचल प्रदेश के विश्वविद्यालयों में नियमित रूप से कुलपति नियुक्त होंगे, जिससे शिक्षा प्रणाली को स्थायित्व और मजबूती मिलेगी।
राज्यपालों की मनमानी बनाम राज्यों का अधिकार: हिमाचल और तमिलनाडु की समान लड़ाई
अभी कुछ महीने पूर्व इलेक्शन के समय चुनाव आचार संहिता लागू होने के बावजूद राज्यपाल महोदय ने किसी अपने को लाभ पहुंचाने के उद्देश्य से कुलपति एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी पालमपुर की पोस्ट एडवर्टाइज भी कर दी और इंटरव्यू की डेट भी फिक्स कर दी और चुनाव आचार संहिता की धज्जियां उड़ा डाली। इसकी शिकायत बार-बार चुनाव आयोग से की गई लेकिन आयोग यहां वहां के बहाने लगाकर कुंभकरनी नींद में सोया रहा और कोई कार्यवाही नहीं की। अगर प्रदेश सरकार ने प्रयास नहीं किए होते तो कुलपति की कुर्सी पर कोई अयोग्य उम्मीदवार थोंप दिया गया होता।
राज्यपालों द्वारा विश्वविद्यालयों के प्रशासनिक कार्यों में हस्तक्षेप की समस्या सिर्फ हिमाचल प्रदेश तक सीमित नहीं है।
हाल ही में तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम. के. स्टालिन ने भी इसी मुद्दे को प्रमुखता से उठाया था।
उन्होंने सवाल किया कि जब राज्य सरकार स्कूल से लेकर विश्वविद्यालय स्तर तक छात्रों की शिक्षा पर खर्च करती है, तो फिर विश्वविद्यालयों का कुलपति (वाइस चांसलर) नियुक्त करने का अधिकार राज्यपाल के पास क्यों होना चाहिए?
तमिलनाडु सरकार ने भी इस समस्या का हल निकालने के लिए विश्वविद्यालय अधिनियम में संशोधन किया था ताकि राज्य सरकार को कुलपति नियुक्त करने का अधिकार मिल सके, लेकिन वहां भी राज्यपाल द्वारा इसे रोका गया।
हिमाचल प्रदेश में भी यही स्थिति देखने को मिली, जहां मुख्यमंत्री ठाकुर सुखविंदर सिंह सुक्खू के नेतृत्व में राज्य सरकार ने विश्वविद्यालयों में कुलपति नियुक्त करने का अधिकार अपने पास रखने के लिए दो बार यूनिवर्सिटी संशोधन विधेयक पारित किया, लेकिन राज्यपाल ने इसे मंजूरी देने से इनकार कर दिया।
यह समस्या भारत के संघीय ढांचे को कमजोर करने वाली साबित हो रही है, क्योंकि राज्य सरकारों के अधिकारों में अनुचित हस्तक्षेप किया जा रहा है।
उल्लेखनीय है कि हिमाचल प्रदेश और तमिलनाडु जैसे राज्यों में सरकारें स्पष्ट कर चुकी हैं कि शिक्षा पर खर्च राज्य सरकार करती है, इसलिए प्रशासनिक निर्णयों पर भी राज्य का ही नियंत्रण होना चाहिए।
तमिलनाडु में मुख्यमंत्री स्टालिन ने इस मुद्दे को खुलकर उठाया और इसे शिक्षा के राजनीतिकरण का प्रयास बताया। हिमाचल प्रदेश में भी यह स्पष्ट हो चुका है कि राज्यपालों का यह रवैया न केवल शिक्षा व्यवस्था को बाधित कर रहा है, बल्कि यह संघीय व्यवस्था पर भी सवाल खड़े करता है। मुख्यमंत्री ठाकुर सुखविंदर सिंह सुक्खू के मजबूत नेतृत्व और दूरदर्शी फैसलों ने छात्रों के हितों की रक्षा करने का जो प्रयास किया है, वह तमिलनाडु सरकार के प्रयासों से पूरी तरह मेल खाता है।
अब समय आ गया है कि केंद्र सरकार इस मुद्दे को गंभीरता से ले और राज्यपालों की भूमिका को पुनर्परिभाषित करे, ताकि राज्य सरकारें शिक्षा प्रणाली को बेहतर बनाने के अपने प्रयासों में बाधा महसूस न करें। हिमाचल और तमिलनाडु की यह समान लड़ाई पूरे देश में शिक्षा सुधार की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम बन सकती है।![]()
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