बुरे फंसे पूर्व एक्टिंग वाईस चांसलर डॉ डीके वत्स, एक तरफ़ भ्रष्टाचार मामले में विजिलेंस इंक्वायरी, दूसरी ओर अवैध एनओसी की फांस
डॉ विनोद कुमार वत्स की बढ़ीं मुश्किलें
बुरे फंसे पूर्व एक्टिंग वीसी डॉ. वत्स: एक तरफ विजिलेंस इंक्वायरी, दूसरी तरफ शक्तियों का गलत प्रयोग
शिमला
राजेश सूर्यवंशी
एचपी एग्रीकल्चर टीचर्स एसोसिएशन ने विश्वविद्यालय की 112 कनाल भूमि को राज्य पर्यटन विभाग को हस्तांतरित करने के लिए अनापत्ति प्रमाण पत्र (एनओसी) जारी करने के कार्यवाहक कुलपति डॉ. दिनेश कुमार वत्स के निर्णय की कड़ी आलोचना की है।
इस कदम को विश्वविद्यालय की नीति और नियमों के खिलाफ मानते हुए शिक्षक संगठन ने स्पष्ट किया है कि डॉ. वत्स को ऐसे महत्वपूर्ण नीतिगत निर्णय लेने का अधिकार नहीं था।
एसोसिएशन ने कहा, “विश्वविद्यालय के कानून के अनुसार, कार्यवाहक कुलपति कभी भी ऐसे निर्णय लेने के लिए अधिकृत नहीं थे। सेवानिवृत्त होने वाले डॉ. वत्स के पास सीमित शक्तियां थीं, और वह नीतिगत निर्णयों में हस्तक्षेप नहीं कर सकते। यह निर्णय न केवल शिक्षकों के अधिकारों का उल्लंघन करता है, बल्कि विश्वविद्यालय की स्थापना के मूल उद्देश्य को भी कमजोर करता है।”
प्राप्त तथ्यों के अनुसार, 1987 के विश्वविद्यालय अधिनियम संख्या 4 की धारा 13 (1.एफ) केवल विश्वविद्यालय के प्रबंधन बोर्ड (बीओएम) को संपत्ति स्वीकार करने, अधिग्रहण करने, रखने और निपटान करने का अधिकार देती है।
इसके अनुसार, कुलपति को इस मामले में हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं था।
क़ानून की धारा 24 (1) एक नियमित कुलपति की नियुक्ति के बारे में स्पष्ट दिशा-निर्देश देती है, जो विश्वविद्यालय का पूर्णकालिक अधिकारी होता है और चयन समिति की सिफारिशों पर कुलाधिपति द्वारा नियुक्त किया जाता है।
यह ध्यान देने वाली बात है कि डॉ. वत्स न तो विश्वविद्यालय के पूर्णकालिक अधिकारी थे, और न ही चयन पैनल में उनकी कोई भूमिका थी।
इससे यह स्पष्ट होता है कि उनकी एनओसी जारी करने की प्रक्रिया कानूनी रूप से संदिग्ध है और इसे चुनौती दी जा सकती है।
हाल ही में, राज्य के कृषि एवं बागवानी विश्वविद्यालयों के सात पूर्व कुलपतियों ने मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू को पत्र लिखकर विश्वविद्यालय की भूमि का पर्यटन गांव बनाने के लिए स्थानांतरण के निर्णय पर पुनर्विचार करने की मांग की है। बीओएम के आठ सदस्यों ने डॉ. वत्स के इस निर्णय को अवैध घोषित किया है, जिससे इस मामले में और अधिक विवाद उत्पन्न हो गया है।
यह पहली बार है कि कृषि शिक्षा, अनुसंधान और विस्तार के अलावा विश्वविद्यालय की लगभग 25 प्रतिशत भूमि अन्य उद्देश्यों के लिए हस्तांतरित की गई है। यह कदम न केवल शिक्षा की गुणवत्ता को प्रभावित करेगा, बल्कि कृषि विकास के लिए भी नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है।
उदाहरण के लिए, उत्तराखंड के जीबी पंत कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय में 6,400 हेक्टेयर भूमि का अधिकांश हिस्सा बीज उत्पादन आवश्यकताओं के लिए उपयोग में लाया जाता है। इसी तरह, लुधियाना और हिसार के कृषि विश्वविद्यालयों में भी बीज उत्पादन के लिए 8,500 हेक्टेयर से अधिक भूमि का उपयोग किया जाता है। दोनों विश्वविद्यालयों ने अपनी भूमि का उचित उपयोग सुनिश्चित किया है, जिससे उनकी आर्थिक स्थिति मजबूत हुई है।
इसके विपरीत, पालमपुर का विश्वविद्यालय अपने कर्मचारियों के वेतन और पेंशन आवश्यकताओं को पूरा करने में संघर्ष कर रहा है। ऐसे में, शिक्षकों और विश्वविद्यालय के कर्मचारियों के बीच असंतोष और बढ़ सकता है, जो कि शिक्षा प्रणाली को प्रभावित करेगा।
इस विवाद ने विश्वविद्यालय प्रशासन के भीतर एक नई बहस को जन्म दिया है, और शिक्षकों का मानना है कि इसे सही तरीके से निपटाया जाना चाहिए ताकि भविष्य में ऐसे निर्णय लेने से पहले उचित प्रक्रिया का पालन किया जा सके।
बहरहाल, डॉक्टर वत्स के लिए कठिन परीक्षा की घड़ी है। एक तरफ तो वह भ्रष्टाचार के मामले में विजिलेंस इंक्वायरी भुगत रहे हैं और दूसरी ओर शक्तियों के गलत प्रयोग ने उनका जीना हराम कर रखा है। “विनाश काले विपरीत बुद्धि” वाली कहावत चरितार्थ होती दिख रही है।