सावन कैसा आया
लावणी छंद
सावन कैसा आया भाई ,
यह कैसा सावन आया ।
दैत्य झूमते हैँ मस्ती में,
यमदूतों का है साया ।
झूले कहां बहे बाढ़ों मेें,
क्या शहरों क्या गांवों में ।
सड़कें कहां धुल गयीं अब सब ,
लोग तैरते नावों में ।।
भाग रहे हैँ तैर रहे हैँ,
मानव पशु अति ऊब गये ।
ऐसी बाढ़ भयंकर आई ,
इक झटके में डूब गये ।।
मची हुई है उथल-पुथल सब ,
कौन झूलते हैं झूले ।
राह नहीं है कहीं, पथिक अब ,
फिरते हैं भटके भूले ।।
फैली है दुर्गंध शहर में,
नाले घर में बहते हैँ।
बार-बार ऐसा ही सावन ,
वही कहानी कहते हैँ ।।
वृक्ष बिछ गये टूट गये पुल ,
परिवर्तित मौसम छाया ।
हद की गर्मी हद की सर्दी ,
आखिर कौन इसे लाया ।।
कोस रहे हैँ हम कुदरत को ,
कुदरत हमको कोस रही ।
अपने ही दिल से हम पूछें,
कौन गलत है कौन सही ।।
हमने स्वयं कुल्हाड़ी मारी ,
है अपने ही पैरों को ।
वृक्षारोपण गया भाड़ में,
दोष दे रहे गैरों को ।।
जनसँख्या की सीमा लांघी ,
बद से बदतर हाल हुआ।
मनन करें हम गहराई से ,
क्यों जी का जंजाल हुआ ।
जंगल प्रतिदिन कटते रहते ,
प्रकृति हुई अति क्रोधित है ।
दोहन की तो हद कर डाली ,
भारतमाता शोषित है ।।
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कर्म ही परिचय
दोहावली
दीपक जलता है सदा ,जलना उसका काम ।
परिचय उसका है यही ,कर्म करे निष्काम। ।
बिना कर्म फल चाहते, कंटकमय यह राह ।
रोटी से वंचित रहो ,निकल जाएगी आह ।।
कर्मयोग कुछ सीख ले ,आलस को अब त्याग।
बाद बाद में टाल मत , जपो कर्म का राग ।
फल की इच्छा मत करो , कर्मों की कर बात ।
जुट जा अपने कर्म में , होने को है रात ।।
फल पर तेरा वश नहीं, कर्मों पर अधिकार।
दीन-दुखी पर ध्यान दे , कर ले कुछ उपकार। ।
आलस ने तोड़ा तुझे ,छूट चुकी है रेल ।
छुक-छुक लौटेगी नहीं, खत्म हो चुका खेल ।।
कर्म करो अच्छे करो , दुष्कर्मों से दूर।
मौज करो मस्ती करो , फिर खाओ भरपूर ।।
परिचय की क्या बात है , कर ले सुथरे काम ।
तेरा परिचय है यही ,यह है तेरा नाम।।
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चला-चली का मेला
(16-14 अर्धसममात्रिक मुक्तक छंद)
तेरा टिकिट कट चुका घर से ,
जल्दी से घर कर खाली ।
चाबी पकड़ा अभी बहू को ,
बदल चुका है अब माली ।।
पर उपकार किया है यदि कुछ,
दीन -दुखी को दी रोटी ,
साथ यही जाएगी गठरी ,
अन्य नहीं जाने वाली ।।
स्वरचित , मौलिक ।
डा.सत्येन्द्र शर्मा ,पालमपुर,
हिमाचल प्रदेश ।