गवर्नर की गरिमा फिर खतरे में, लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई सरकार के कार्यों में दखल देना पूरी तरह निन्दनीय और असंवैधानिक, वीरभद्र और सुक्खु के तत्कालीन राज्यपाल आचार्य देवव्रत के रिश्तों की खटास का इतिहास आज फिर अपने आप को दोहरा रहा है, आखिर क्यों अपनी मर्यादा में रह कर अपने कर्तव्य का निर्वहन नहीं करते महामहिम!
“क़लम के सिपाही अगर सो जाएं तो वतन के कथित मसीहा वतन बेच देंगे… वतन बेच देंगे….“
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हमारा लक्ष्य
“न काहू से दोस्ती,
न काहू से बैर”
जो गलती आज से 8 वर्ष पूर्व तत्कालीन गवर्नर आचार्य देवव्रत ने की थी वही गलती आज सत्ता के नशे में चूर महामहिम गवर्नर श्री शिव प्रताप शुक्ल दोहरा रहे हैं। इस जानबूझकर की जा रही गलती से एक बार फिर महामहिम कहलाए जाने वाले राज्यपाल के गरिमापूर्ण पद को गहरी ठेस पहुंच रही है। अशोभनीय और असंवैधानिक कार्यों के परिणामस्वरूप गवर्नर की गरिमा दाग़दार हो रही है। उनकी कार्यप्रणाली पर प्रश्नचिन्ह लग रहे हैं।
उल्लेखनीय है कि तत्कालीन मुख्यमंत्री राजा वीरभद्र सिंह और उनके तत्कालीन वफादार सिपहसालार प्रदेश कांग्रेस के चीफ और वर्तमान मुख्यमंत्री ठाकुर सुखविंदर सिंह सुक्खु ने एकजुटता दिखाते हुए एक ही मंच से, साथ मिलकर तत्कालीन गवर्नर आचार्य देवव्रत को जोरदार शब्दों में लताड़ते हुए सचेत किया था कि वह हिमाचल प्रदेश में प्रजातांत्रिक तरीके से चुनी हुई लोकप्रिय सरकार के समकक्ष अपनी पैरेलल सरकार चलाने से बाज़ आएं तथा अपने काम से काम रखें।
उन्होंने यह भी कहा था कि गवर्नर अपने पद की गरिमा को बनाए रखें और लोकप्रिय सरकार के कार्यों में दखल देने की जुर्रत कतई न करें।
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उस समय CPI ने कांग्रेस के साथ कंधे से कंधा मिलाकर उनकी जम कर निंदा की थी। यह प्रकरण अंतरराष्ट्रीय मीडिया में जोरदार चर्चा का विषय भी बना था। गवर्नर महोदय को यह भी सचेत किया गया था कि वह सरकार के आंतरिक कार्यों में दख़ल अन्दाजी करने से परहेज़ करें।
उन्हें राजा वीरभद्र सिंह और ठाकुर सुखविंदर सिंह सुक्खु ने संयुक्त रूप से आग्रह किया था कि वह सरकार द्वारा विधानसभा में सर्वसम्मति से पारित किए गए जनहित के संशोधन विधेयक को समय पर अपनी स्वीकृति देकर मुख्यमंत्री को वापस भेजें लेकिन वह अपनी आदतों से बाज़ नहीं आ रहे थे इसीलिए वीरभद्र और सुक्खु कि जोड़ी ने अपना रुख कुछ तीख़ा किया था तभी प्रयासों में आशातीत सफलता प्राप्त हुई थी।
आज फिर वक्त ने करवट ली है
आज फिर से वक़्त ने करवट ली है। इतिहास फिर स्वयं को दोहरा रहा है। आज फिर से पिछले एक वर्ष से भाजपा समर्थित राज्यपाल श्री शिव प्रताप शुक्ल प्रजातांत्रिक तरीके से चुनी गई सुखविंदर सिंह सुक्खु की लोकप्रिय सरकार के समानांतर अपनी सरकार चलाने का असफल प्रयास कर रहे हैं और प्रदेश की जनता की भलाई के कार्यों में विघ्न डाल कर उनके कोपभाजन का शिकार बन कर महामहिम के गौरवपूर्ण पद की गरिमा को तार-तार कर रहे हैं जोकि किसी भी देश या प्रदेश के लोकतंत्र के लिए अच्छा संकेत हरगिज़ नहीं है। गवर्नर को पथभ्रष्ट करने में पूर्व भाजपा सरकार के कुछ आकाओं का स्पष्ट हाथ रहा है जो महामहिम की आड़ में उनके कंधे पर बंदूक रख कर चला रहे, अपनी स्वार्थसिद्धि हेतु वरन वह अकेले इस गुनाह के लिए ज़िम्मेदार नहीं हैं।
जनता का तर्क है कि जो गवर्नर हाउस प्रदेश सरकार के खर्च और रहमोकरम पर चलता है उसे प्रदेश के चहुँतरफी विकास हेतु कन्धे से कन्धा मिलाकर सरकार के कार्यों में मुख्यमंत्री का साथ देना चाहिए, न कि जनहित के बिलों की सहमति में रोड़ा अटका कर प्रदेश व प्रदेश वासियों का विकास अवरुद्ध करना चाहिए। इस तरह का आचार-व्यवहार उनके लिए भी बेहतर होगा और प्रदेश की कांग्रेस सरकार व प्रदेशवासियों के लिए भी।
हिमाचल प्रदेश के राजनीतिक परिदृश्य में राज्यपाल के अत्यधिक हस्तक्षेप का भयावह भूत फिर से वापस लौट आया है। मुख्यमंत्री राजा वीरभद्र सिंह और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सुखविंदर सिंह सुक्खू की जोड़ी द्वारा आठ साल पहले तत्कालीन राज्यपाल आचार्य देवव्रत को दी गई चेतावनियों पर ध्यान नहीं दिया गया था। अब, इतिहास निर्दयतापूर्वक खुद को दोहरा रहा है। वर्तमान भाजपा द्वारा नियुक्त राज्यपाल, राजभवन में रहते हुए, अपने पूर्ववर्ती के निरंकुश कार्यों की नकल कर रहे है, जो राज्य के लोकतांत्रिक ढांचे के लिए खेद और क्रोध का विषय है।
उल्लेखनीय है कि आचार्य देवव्रत का कार्यकाल सत्ता के घोर दुरुपयोग, लोकतंत्र के सिद्धांतों की खुलेआम अवहेलना और जनता की इच्छा को दबाने के प्रयास से सराबोर था। उनके अनुचित हस्तक्षेप की गूँज समय के साथ गूंजती रहती है, क्योंकि वर्तमान राज्यपाल, सुशासन की आड़ में, निरंकुश दखलंदाजी के समान कृत्यों को अंजाम दे रहे हैं जोकि लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए अत्यंत घातक सिद्ध हो रहा है।
लोकतांत्रिक प्रक्रिया की पवित्रता को रौंद दिया गया क्योंकि देवव्रत ने अपने जनादेश से परे एक समानांतर सरकार स्थापित करने का कुप्रयास किया था, जिसने राजा वीरभद्र सिंह के नेतृत्व वाले लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित कांग्रेस प्रशासन को सौंपे गए अधिकार को हड़पने जा भी असफल प्रयास किया था। जिस साहस के साथ देवव्रत ने राज्य सरकार के मामलों में हस्तक्षेप करने की हिम्मत की, जन कल्याण के लिए महत्वपूर्ण संशोधन विधेयकों को पारित करने में बाधा डालते हुए, लोकतांत्रिक शासन के सिद्धांतों के प्रति उनकी अवमानना का प्रमाण है।
सिंह और सुक्खू द्वारा धर्मसंगत आक्रोश के साथ दी गई चेतावनियां बहरे कानों में पड़ीं थीं, क्योंकि देवव्रत हठपूर्वक अपने अधिकार के दुरुपयोग पर कायम रहे। उनके कार्यों ने न केवल उस लोकतंत्र की नींव को भी कमजोर कर दिया जिस पर राष्ट्र खड़ा है।
वर्तमान में अधिनायकवादी हस्तक्षेप का खतरा एक बार फिर मंडरा रहा है क्योंकि हिमाचल प्रदेश की लोकप्रिय सुक्खू सरकार ने लगभग एक वर्ष पूर्व विश्वविद्यालय संशोधन विधेयक को पास करके राज्यपाल के पास सहमति देने हेतु भेजा था लेकिन आज तक उन्होंने अपनी ईगो के वश हठधर्मिता का परिचय देते हुए वह बिल अपने पास रोक कर रखा हुआ है जिसकी वजह से विद्यार्थी और कर्मचारियों के भविष्य पर प्रश्नचिन्ह लग गया है।
अब तो जागिये मुख्यमंत्री जी, शत्रु धोखे से वाज़ी पर वाज़ी मारने की फिराक में है
यह बात हमारे संज्ञान में आई है कि विश्वविद्यालय संशोधन विधेयक 2023 को राज्यपाल एक बार फिर से आपत्ति जता कर मुख्यमंत्री को वापिस भेजने वाले हैं ताकि सरकार को दरकिनार कर अपने चहेते व्यक्ति को वाईस चांसलर की कुर्सी पर बिठाया जा सके। क्योंकि जिस संघी व्यक्ति को उन्होंने सीनियर मोस्ट की आड़ में एक साल तक बिना किसी रेगुलर अपॉइंटमेंट के एक्टिंग वीसी की गद्दी पर बिठाए रखा वह 31 जुलाई को रिटायर हो रहे हैं। उसके बाद नियमित कुलपति की नियुक्ति करना लाज़मी होगा इसीलिए गवर्नर महोदय ने आव देखा न ताव, चुनाव आयोग और आचार संहिता का कथित उल्लंघन करते हुए कुलपति की सिलेक्शन हेतु एक कमेटी गठित कर दी ताकि “अपनों” को Appoint किया जा सके।
और इसके बाद इसी आड़ में वानिकी विश्वविद्यालय नोनी, सोलन में भी जल्दी ही रिटायर होने काले वीसी के पद को सुरक्षित किया जा सके। यानि अपनों की भर्ती कर कांग्रेस के समानांतर अपनी सरकार चला सकें।
तानाशाही जीतेगी या लोकतंत्र?
अब देखना यह है कि राज्यपाल अपने षड्यंत्र में किस हद तक कामयाब हो पाते हैं या फिर सुक्खु सरकार अन्य प्रदेशों की भांति राज्यपालों के चंगुल से छूट कर अपना वर्चस्व कायम करने में सफल हो पाती है या फिर भाजपा गवर्नर की आड़ में वाईस चांसलरों के पदों को झपटने में कामयाब हो जाती है। प्रश्न यह भी उठता है कि पूर्व की भांति गवर्नर क्या एक बार फिर लोकतंत्र का गला घोंट कर सुक्खु सरकार पर अपना दबदबा बनाने में कामयाब होते हैं यालोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई सुक्खु सरकार बाज़ी मार ले जाती है।
अब देखना यह भी है कि कुलपतियों की कुर्सियां महामहिम संघी उम्मीदवारों से भरते है या मुख्यमंत्री अपने लोगों से या एक बार फिर मुख्यमंत्री के अपने कार्यकर्ता, कर्मठ सिपाही मुंह ताकते रह जाएंगे और मन नासोस कर अपने भाग्यों को कोसते रह जाएंगे।
कब तक खामोश बैठे रहेंगे मुख्यमंत्री सुक्खु, पहले जैसी ऊर्जा और हिम्मत की फिर से तलाश है…
जनमानस में इस बात की चर्चा है कि यदि चुनाव प्रक्रिया और आचार संहिता के दौरान गवर्नर सरकार को दरकिनार कर वीसी नियुक्ति की प्रक्रिया चला सकते हैं तो सरकार किसका इंतजार कर रही है ? यह प्रश्न सभी के मस्तिष्क को झकझोर रहा है। लोग यह भी कहते सुने जा रहे हैं कि जब भाजपा सत्ता पर काबिज होती है तो रातोंरात अधिकारी बदल दिए जाते हैं जबकि मुख्यमंत्री सुक्खु डेढ़ साल बाद भी न जाने क्यों खामोश बैठे हैं। मौके पर चौका क्यों नहीं मार रहे और दुश्मन को अंदर तक आकर मार करने का मौका बक्श रहे हैं?
अन्य राज्यों की तरह जहां कुछ राज्यपालों को सुप्रीम कोर्ट की फटकार सहनी पड़ी वहां की सरकारों ने गवर्नर के समानांतर वीसी की नियुक्ति हेतु सरकारी विज्ञापन जारी कर अपने तौर पर कुलपतियों की नियुक्तियां कर दीं। ऐसा सुक्खु सरकार द्वारा भी किया जा सकता है।
आम जनता का मानना है कि महामहिम राज्यपाल को अपने पद की गरिमा को बरकरार रखते हुए, अपनी हठधर्मिता का त्याग करते हुए हुए सरकार द्वारा पास किए गए विधेयकों को सहमति के साथ वापस करके प्रदेश और प्रदेशवासियों की भावना का सम्मान कर प्रदेश की एकता और अखंडता को सुदृढ करने हेतु प्रदेश की प्रगति में कंधे से कंधा मिला कर अपना अमूल्य योगदान देना चाहिए। राजनीतिक द्वेष व हठधर्मिता को त्याग कर लोकतंत्र की नींव को मजबूत करने की दिशा में कार्य करना चाहिए, इसीमें सर्वस्व का भला निहित है।
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