“कहां हो तुम!!” (भाग-2) देवभूमि पालमपुर की महान साहित्यकार श्रीमती कमलेश सूद द्वारा कलमबद्ध लघुकथा-संग्रह, प्रस्तुत है प्रबुद्ध पाठकों की सेवा में.. मन को छू लेने वाली कहानियां, हर रोज़ लेकर आएंगे हम सिर्फ़ आपके लिए….

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कहां हो तुम!!” (2) स्व. डॉ. वीके सूद को समर्पित देवभूमि पालमपुर की महान साहित्यकार श्रीमती कमलेश सूद द्वारा कलमबद्ध लघुकथा-संग्रह, प्रस्तुत है प्रबुद्ध पाठकों की सेवा में.. मन को छू लेने वाली कहानियां, हर रोज़ लेकर आएंगे हम सिर्फ़ आपके लिए….

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2.

“बस! अब और नहीं”

बरसात अपने पूरे यौवन पर थी। दो दिन से लगातार पानी बरस रहा था। जनको अपने कच्चे खपरैल के घर में चारपाई पर बैठी हुई अपनी चूती हुई छत को देख रही थी। उसकी चारपाई के चारों पाए भी आधे-आधे पानी में डूब गए थे। खाने को घर में कुछ था नहीं और जो भी था वह सब बरसात की भेंट चढ़ गया था। कुछ हलके-फुल्के बर्तन व डिब्बे भी उसी पानी में तैर रहे थे।

जनको को दो बरस पहले की याद आ रही थी। तब भी ज़ोरदार बरसात हुई थी तो उसके पति ने आनन-फानन में घास-फूस व पत्तों का इंतजाम करके खपरैल की छत को चूने से बचा लिया था। कितनी सुखी थी तब वह परन्तु फिर अचानक ही पति की मृत्यु हो जाने से सब कुछ खाली व समाप्त सा हो गया था।

आस-पास गाँव के जानने वाले लोग भी जनको के पास उस समय अफसोस करने आए थे। साथ लगते गाँव का सुखिया भी तो आया था और मौका देखकर जनको से कह गया था-

‘जनको! अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है? पहाड़ जैसी ज़िंदगी अकेली कैसे काटोगी? मेरा भी कोई अपना नहीं है। मेरे साथ घर बसा लो। पास के गाँव में मेरा पक्का मकान है, थोड़ी-बहुत गुजारे लायक ज़मीन भी है। अगर मन बन जाए तो संदेसा भिजवा देना।”

तब जनको ने मना कर दिया था। शायद ताज़ी चोट थी और अपने हाथों पर यकीन भी था। इस वक्त वह बैठी सोच रही थी-

“काश! मैंने सुखिया की बात मान ली होती तो आज यह दिन न देखना पड़ता। दो दिन से पेट में अन्न का एक दाना भी नहीं गया है।”

वह ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी थी। उस उमड़ती-घुमड़ती बरसात में बादलों के शोर में उसका रूदन गौण पड़ गया था। उसने रोते-रोते ज़ोर से कहा था-

“सुखिया ! कहाँ तो तुम? आकर मुझे इस दुख से उबार लो।” तभी अचानक सुखिया पानी से भरी कुटिया में आ गया था और बोला था-

“जनको! भारी बरसात देख, कल से तुम्हारी चिंता हो रही थी सो तुम्हारी खबर लेने चला आया था। मैंने दरवाजे पर ही तुम्हारी पुकार सुन ली थी। चल जनको! उठ! बहुत दुःख सह चुकी, अकेली रह कर तू, बस! अब और नहीं। अब अपने घर चल।”

जनको का हाथ थाम कर सुखिया अपने घर की ओर चल पड़ा था।

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3.

“जज़्बा”

दोनों हाथों में सब्जी व सामान के थैले उठाए वह वृद्धा अपने घर की सीढ़ियाँ चढ़ने लगी कि अचानक ही उसका पैर फिसला और वह सामान सहित लुढ़कती हुई सीढ़ियों के नीचे आ गिरी थी। चारों तरफ आलू, प्याज़, टमाटर और सब्ज़ियाँ बिखर गई थीं।

वृद्धा बिखरे सामान को बेबस निगाहों से देख रही थी। उसे अपनी चोटों की भी परवाह नहीं थी। वह सोच रही थी-

“सारा सामान मिट्टी में मिल गया। लॉकडाउन में कितनी मुश्किल से यह सब लाई थी और इतने पैसे भी तो नहीं हैं कि सब कुछ दोबारा खरीदकर ले आऊँ।”

इसी चिंता से उसका गला सूख गया था। उसने उठने की कोशिश की तो देखा कि एक छोटी सी लड़की भी उसे उठाने का प्रयत्न कर रही है। वह उठकर बैठ गई थी और चिंतातुर होकर बोली थी-

” मेरा सा ऽऽऽ माऽऽऽऽऽ न !”

उस लड़की ने वृद्धा को सीढ़ी पर बिठाया और बिखरा हुआ सारा सामान धीरे-धीरे उठाकर थैलों में रख दिया था। थैलों को उठाकर वह वृद्धा के घर के बाहर दरवाज़े के पास रख आई थी और उसका हाथ पकड़ कर उठाते हुए बोली थी-

“अम्मा! कहीं अधिक तो नहीं लगी? घर चलो, मैं दवाई लगा देती हूँ और इन सब्जियों को अगर नमक मिले पानी से दो-तीन बार धोओगी न, तो यह साफ हो जाएंगी, तुम इनका फिर प्रयोग कर सकती हो।”

वह लड़की उसे घर के अंदर बिस्तर बिठाकर सारा सामान अंदर रख गई थी। संयोग से वृद्धा को मामूली खरौंच लगी थी। वह छोटी बच्ची की सेवा भावना और यह जज़्बा देखकर गदगद हो उठी थी और दोनों हाथ उठाकर उसे आशीर्वाद देने लगी थी।

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4.

समर्पण’

मेरी सहेली मीनू का फोन आया था कि वह अपने पति के साथ मुझसे मिलने आ रही है।

मीनू के पति का पिछले वर्ष दिल का दौरा पड़ने से देहांत हो गया था। वे कपड़े के व्यापारी थे, साथी ने धोखे से सब छीन लिया। उस आधात को वह सह न पाए थे। मीनू के माता-पिता ने उसकी दूसरी शादी करनी चाही तो उसका मुझे फोन आया था-

“एक सलाह लेनी है तुझसे!”

“हाँ-हाँ, बोल न क्या बात है?”

‘एक रिश्ता आया है, क्या करूँ? वह बोली थी”

“देख मीनू! तेरी दो बेटियाँ है, लड़के का अच्छी तरह शोध करना होगा। ताकि कल को कोई मुश्किल न हो।” मैंने कहा वह बोली-

“सब पता करवा लिया है। उसकी पत्नी का भी पिछले वर्ष देहांत हो गया है। उसके दो लड़के हैं। कहीं न कहीं तो समझौता करना ही होगा। ” “तुम तैयार हो” मैंने पूछा तो कहने लगी थी-

“माँ-बाप के सिर पर दो लड़कियों को साथ लेकर पूरी उम्र तो नहीं कट सकती। कुछ न कुछ तो उठाना ही होगा ना ” फिर उन दोनों की कोर्ट मैरिज हो गई थी और मीनू का दो बार फोन आया था कि अनिल बहुत ही अच्छे व समझदार हैं। मुझे भी तसल्ली हो गई थी कि चलो मीनू का जीवन अब सही पटरी पर आ गया है।

आज वह दोनों मुझसे मिलने आ रहे थे।

मैंने देखा कि अनिल एक सुलझा हुआ, मितभाषी एवं सद्व्यवहारी है। मुझे संतोष व प्रसन्नता हुई थी ।

चाय-पानी के बाद मीनू बोली थी-

“सोना! मुझे जब भी अपने पहले पति की याद आती है मैं इनके गले लग कर, रोकर मन हलका कर लेती हूँ।”

मैंने घबरा कर अनिल की तरफ देखा तो वह मेरी मंशा समझ कर बोला था-

“हाँ बहिन! हम दोनों अपने-अपने बिछड़े साथी को एक दूसरे में ढूँढ़ते हैं और रोकर जी हल्का कर लेते हैं।”

उनकी स्पष्टवादिता, जीने का नज़रिया और समर्पण भाव देखकर मैं विभोर हो गई थी।

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