उठो मुर्दो, नामर्दो! कुछ तो शर्म करो…अब तो जागो…कब तक चुपचाप देखते रहोगे..मुझे दुःख है कि मैं मुर्दों के शहर में रहती हूं : कमलेश सूद, प्रख्यात कवयित्री व साहित्यकार
नमन मंच
विधा : कविता
विषय : मैं मुर्दों के शहर में रहती हूॅं
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यह बात कोई मिथ्या न माने,
मैं सबकुछ सच-सच कहती हूॅं।
ज़िंदा हूॅं, शर्मिंदा हूॅं कि मैं मुर्दों के शहर में रहती हूॅं।
लाज लूट ले कोई वहशी,
देख के भी सब चुप रहते हैं
आता नहीं कृष्ण बन कोई,
सब आड़ -ओट में रहते हैं।
अपने -अपने दड़वों में खुश हैं, सब, चाहे लाख जुल्म सहे कोई
दूजे के दुःख को देख कभी,
क्या मज़ाल कुछ कहे कोई।
बात हो नारी की अस्मत की या रावण की किसी हरकत की
सब कटे-कटे से रहते हैं, चुपचाप देखते रहते हैं
दुःख सबको अपना ही लगता भारी, बाकी तो है बस लाचारी।
उठो! उठो! अरे मुर्दों, ज़रा कफ़न हटा कर देखो तो! जागो -जागो ओ नामर्दो! ललकार लगा कर देखो तो!
इन शहरों को मरघट मत बनने दो
चिंगारी को लपटें मत बनने दो
निकलो -निकलो अब दड़बों से कफन हटा कर देखो तो,
क्या ज़िंदा हो तुम अब भी यदि तो कफ़न हटा दो उठ जाओ,
औरों की पीर हरो मानव तुम मुर्दा नहीं हो दिखला दो।
स्वरचित मौलिक रचना
रोटेरियन कमलेश सूद
मोबाइल : 9418835456
पालमपुर, 176061
हिमाचल प्रदेश।
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