जीवन की सच्चाई को जिया है संतोष-शांता जी ने (Part-I)

उनका दांपत्य जीवन एक लंबे समय तक कठिन परिस्थितियों के होते हुए भी बेहद सुखद रहा

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जीवन की सच्चाई को जिया है संतोष-शांता जी ने (PART-I)

 

Extreme left (Mrs. Santosh Shailja) Extreme Right (Mr. Shanta Kumar)
INDIA REPORTER NEWS
PALAMPUR :  Er. SUDARSHAN BHATIA, A Renowned Writer

आज श्रीमती संतोष शैलजा नहीं हैं। उनका प्रभु-चरणों में विलीन हो जाना श्री शांता कुमार को कभी उदास, कभी विचलित तो कभी असहज कर देता है। ऐसा ही होता है जब दो प्रेमी सदा-सदा के लिए बिछड़ जाते हैं। शांता जी ने जीवन में जो बड़ी-बड़ी सफलताएं पाई हैं उनके पीछे उनकी स्वर्गीय पत्नी संतोष जी का मजबूत हाथ रहा है। ऐसा ही शांता जी विभिन्न तरीकों से कह भी चुके हैं। आज भले ही वह कहते हैं कि न वह उदास होंगे, न आंसू बहाएंगे तथा आगे बढ़ते रहेंगे, किंतु प्रिय पत्नी की यादें उनका पीछा करती ही रहेंगी।
यह भी सच है कि उनका दांपत्य जीवन एक लंबे समय तक कठिन परिस्थितियों के होते हुए भी बेहद सुखद रहा, ऐसा इस परिवार को निकट से जानने वाले कहते रहे हैं।
शांता जी की खासियत देखिए कि उन्होंने अपने संबंधों को कई बार बेबाक कहा ही नहीं, लेखनीबद्ध भी कर दिया। इससे पता चलता है कि वह एक-दूसरे के पूरक थे। वे बहुत अच्छे मित्र तथा सहयोगी रहे। जब-जब श्री शांता कुमार के सामने कोई विकट परिस्थिति, विशेषकर राजनीतिक आती तो उनकी राजनीतिक धर्मपत्नी सही रास्ता चुनने में मदद भी किया करती, कुछ ऐसा ही श्री शांता कुमार पिछले दिनों बयान भी कर चुके हैं तथा पत्नी से मिले सहयोग को कभी भुला नहीं पाएंगे। श्री शांता कुमार की बेबाकी उनकी एक ही पंक्ति में आपको भी अभिभूत कर देगी। उनके अपने शब्द हंै- ‘‘प्रभु के उस प्यार की ही मदिरा में मदहोश होकर हमने गृहस्थ में पैर रखा था। शायद ऐसा ही हर दंपत्ति मानता भी है।’’ कितना खूबसूरत तथा सत्यता भरा बयान है शांता जी का। लिखते हैं- हम दोनों अपने जीवन को एक बहुत बड़े आदर्श की गगनचुंबी कल्पना में चित्रित किए हुए थे। आसमान को भी धरती पर ले आने के मंसूबे बनाए थे। साहित्य सृजन की योजनाओं के अंबार लिए जीवनपथ पर कदम बढ़ाए थे और यथार्थ की धरती की चिंता न कर के आसमान पर ही अपनी सोच दौड़ाए हुए थे।
जब जीवन की वास्तविक विशेषताएं आर्थिक तंगी, रोटी-कपड़ा और मकान की चिंता घेरने लगी तब श्री शांता कुमार ने जिस सच्चाई को बयान किया वह यह थी- ‘‘गृहस्थ की कठोर सच्चाई ने तथा जीवन की आर्थिक विषमताओं ने हमें मानव आदर्श के आकाश से यथार्थ की धरती पर पटक दिया था। कितना कुछ सोचा हुआ हो नहीं पाता था। निभा नहीं पाता था, तो फिर एक घुटन होती थी, कभी मैं और कभी संतोष खीझ उठते थे। परिवार के बोझ में योजनाओं और कल्पनाओं का क्या काम।…’’ हम यहां श्री शांता कुमार की सच्चाई को बिना लाग-लपेट बयान करने की उनकी क्षमता की दाद देते हैं। उनकी कलम से जो वाक्य निकले यह उनकी साफगोई की तारीफ़ मांगते हैं। देखिएगा-
‘‘विवाह के आरंभिक वर्षों में संतोष को कम से कम इतना आश्वासन था कि मैं सदा उसके पास रहता हूं और यह आश्वासन उस समर्पित पिता के लिए एक बहुत बड़ा संबल था। वकालत से होने वाली अपर्याप्त आय, घर का बढ़ता खर्च, 1967 के चुनाव की हार और फिर प्रिंटिंग प्रेस लगाने में आर्थिक बोझ, उधार व कठिन परिश्रम- यह सब कुछ सहन हो गया, क्योंकि सुबह-शाम घर पर रहता था। उन दिनों भी जैसे मैं विलंब से आता था तो उसे रूठे देखता, मुझे उसे मनाने का सौभाग्य मिल जाता।’’
श्री शांताजी ने अपनी बढ़ती व्यवस्थाओं को जो स्पष्टता दी उसी की एक झलक- लिखा-’’
विवाह के कुछ वर्ष बाद ही जब मेरे राजनीतिक जीवन की व्यस्तताएं बढ़ीं तो मुझे घर के बाहर होने की आवश्यकता होती थी। घर से बाहर रहना धीरे-धीरे बढ़ गया था और यह बात संतोष को असहय हो गई। परंतु परिस्थितियों के बदलते रूप के साथ वह भी कुछ-कुछ अपने को मेरे लिए बदलती गई।श्री शांता कुमार ने अपनी बात को विराम देने से पूर्व एक ऐसी बात कह दी जो सौ प्रतिषत सच मानते हैं सब-
‘‘मैं समझता हूं जो पति-पत्नी आपस में कभी लड़ें नहीं, झगड़ंे नहीं, रूठंे नहीं और फिर एक-दूसरे को मनाया नहीं, उनका विवाह करना ही व्यर्थ है। यदि इन सबकी पृष्ठभूमि में सात्विक प्रेम है तो उसमें एक स्वर्गिक सुख का आनंद है।’’
To be continued……

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