प्रवीण शर्मा – प्रख्यात लेखिका के *शब्द भी बोलते हैं….* अहंकार के मद में चूर इंसानियत भुला चुके, रोज़ी-रोटी के दुश्मनों को समर्पित

......सुल्तान की सल्तनत से नवाब भी उठा लिए जाते हैं,,,,

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पालमपुर

प्रवीण शर्मा

प्रख्यात लेखिका

Mob : 98051 42749

*शब्द भी बोलते हैं….*

उर्दू के एक शायर के ये शब्द आज के युग में समय की सत्ता को भूल चुके मनुष्य पर बिल्कुल सटीक बैठते हैं।

समय की पराकाष्ठा जब अपने चरम पर होती है..

सुल्तान की सल्तनत से नवाब भी उठा लिए जाते हैं।”

पर क्या हम समय की सत्ता को समझते हैं ? क्या इस समय के आस्तित्व को याद रखते हैं ? उत्तर “” में ही मिलेगा।

अपने अस्तित्व में मानव इस कदर खो गया है कि समय की बादशाहत को स्वीकार ही नहीं कर पाता। फिर  याद दिलाने के लिये ‘शब्द’ ही तो हैं जो समय-समय पर चेतावनी देते हैं और हम एक नज़र से उन्हें देखते तो हैं, पढते भी हैं पर दूसरी नज़र में नज़रअंदाज़ भी कर देते है। क्योंकि हम तो उन्हीं शब्दों को तोलेंगे जो हमे प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से वे अर्थ देंगे जिनकी हमें हमेशा आवश्यकता होती है।

अन्ततः मानव ही ईश्वर की वह श्रेष्ठ रचना है जो शब्दों की अनुकम्पा व श्रेष्ठता को समझता है, अपनी आवश्यकता के हिसाब से नाप-तोल करता है अन्यथा नजर अंदाज़ कर देता है। विश्व के किसी भी कोने में चले जाएं, किसी भी भाषा को सीख लें, पढ़ लें, शब्दो का महत्व सर्वोपरि है।

मनुष्य जब इस संसार में आंखे खोलता है तो साफ, स्पष्ट, कोरे कागज़ की भान्ति होता है।  माँ की गोद से, उसके आँचल की छाँव में धीरे-धीरे इस कोरे पन्ने पर लिखावट आरम्भ हो जाती है। समय की थाप उसकी बाजू थाम कर उसे दुनियादारी की दहलीज़ पर खड़ा कर देती है। विद्यालय के द्वार उसके जीवन का नया अध्याय आरम्भ करते हैं और अध्यापक इस नए अध्याय से परिचित करवा उसकी जीवन यात्रा को गति प्रदान करते हैं। अध्यापक तो वहीं रहता है परन्तु अपने विद्यार्थियों का मार्ग ज्ञान के प्रकाश से प्रशस्त कर उन्नति के नए-नए मार्ग खोलता है। समाज की सेवा के साथ-साथ राष्ट्र सेवा की ओर अग्रसर करता है। चाहे वह जीवन-यापन के लिए समाज सेवा का मार्ग चुने अथवा कोई और……क्योंकि समाज सेवा आज जीवन को श्रेष्ठता से जीने का पर्यायवाची बन चुका है, एक सर्वश्रेष्ठ विकल्प बन चुका है।

अपने अध्यापन की यात्रा में हमने कई विद्यार्थी ऐसे भी देखे हैं जो शब्दों को पढ़ते-पढ़ते शब्दों के बड़े-बड़े जाल बुनने में समर्थ हो चुके हैं। इतने समर्थ कि   और बड़ी-बड़ी गाथाएं निर्मित कर लेते हैं कि उनके प्रति किए गए अपने प्रयासों के बारे में यह भूल कर कि गुरु तो गुरु है जिसने प्रगति के मार्ग उसके लिए प्रशस्त किए….।

गुरु माथा ठोकता रह जाता है कि जिस समय के महत्व से विद्यार्थी को अवगत करवाया, उसी की सत्ता को भूल गया। नए और शब्द निर्मित किए जाते हैं कि समय बादशाह है। चंडीगढ़ का सेक्टर 17 इसका सबसे बड़ा गवाह है । सेक्टर 17 जो चंडीगढ़ की धड़कन माना जाता था आज वही वेंटीलेटर पर पड़े रोगी की भांति सांसे ले रहा है।

परंतु बहुत दुख की बात है कि मनुष्य अपनी ईगो के सिहासन पर बैठा सत्य व असत्य में भेद करना भी भूल गया है। यहां तक कि किसी की रोजी-रोटी छीनने में भी संकोच नहीं करता।

“Charity begins at home” की तर्ज़ पर अपने घर, परिवार व बन्धुओं के लिए चैरिटी होती है। अन्य इनके द्वारा पीड़ित व्यक्ति कैसे अपना जीवन निर्वाह करता है, इस पीड़ा को अनुभव करने से कोसों दूर होते हैं ऐसे कथित समाज सेवक।

ऐसा नहीं है कि सभी इंसानियत की भावना को अनुभव करने में अक्षम हैं। इनके अपवाद स्वरूप भी कई ऐसे उदाहरण देखने को मिलते हैं जिनसे मिलकर गर्व अनुभव होता है। समय व शब्द एक दूसरे के अपवाद ही तो हैं। समय के अनुसार शब्दों का उपयोग मानव की मानवता को साकार करता है।

हम सभी को समय का सम्मान करना चाहिए क्योंकि समय को भूल कर जब हम अपने अहं की तुष्टीकरण के लिए दूसरे की भावनाओं को थे पहुंचाते हैं तो समय मुस्कुराता है हमारी मूर्खता पर शब्द हमें मुंह चिढ़ाते हैं क्योंकि बड़े-बड़े सम्राटों का नामोनिशान मिट गया तो हम क्या चीज़ हैं!

संवेदना विहीन मनुष्य तो पशु से भी बदतर है। पशु भी जो उसकी देखभाल करता है उसके प्रति वफादार होता है। इसलिए समय को अनदेखा हमें कदापि नहीं करना चाहिए अन्यथा एक समय ऐसा आएगा जब वही समय कर्म बनकर हमें रौंदने में ज़रा सी भी देरी नहीं लगाएगा!

ध्यान रहे जो बड़े-बड़े भवन हम दूसरों की सिसकियों पर खड़े करते हैं उन्हें खंडहर मैं परिवर्तित होते समय नहीं लगता…। शब्द भी यही बोलते हैं, चीख़-चीख़ कर हमें सावधान भी करते हैं….हमारे अहंकार पर। भीतर से हम सभी समझते हैं परन्तु नज़रअंदाज़ कर हम इन पंक्तियों को चरितार्थ करते हैं—

“इब्तिदा-ए-इश्क़ है रोता है क्या,

आगे-आगे देखिए होता है क्या .।”

समय का सम्मान करें, मनुष्य का सम्मान करें, मानवीय संवेदनाओं को संजो कर रखें यही हमारा सनातन धर्म हमें सिखाता है। इन शब्दों को हमें समझना है, आत्मसात करना है, तभी हम वास्तव में मानव कहलाते हैं, केवलमात्र बोलने से अथवा बोर्ड टांगने से नहीं।

 

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