गिरफ़्तारी से कभी भयभीत नहीं हुए शांता कुमार
INDIA REPORTER NEWS
PALAMPUR : Er. SUDARSHAN BHATIA
मात्र 19 वर्ष की आयु में जब युवक शांता कुमार को गिरफ़्तार किया गया तब उनकी कलाई इतनी पतली थी कि उनका हाथ हथकड़ी से स्वतः निकल जाता। वह इसे खेल बनाकर इससे खेल लिया करते थे।
इस राष्ट्रभक्त ने 1953 से लेकर 1975 तक 5 बार गिरफ़्तारियां दी किंतु उनके माथे पर कभी शिकन तक नहीं आई थी। अच्छी बात तो यह है कि सभी गिरफ़्तारियां पार्टी या देश प्रेम से जुड़ी थीं। वह कभी भी भयभीत नहीं हुए। उन्हें परिवार से अधिक राष्ट्र की चिंता रही।
जब 26 जून 1975 को एमरजेंसी लगी तब श्री जयप्रकाश नारायण, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी से लेकर नीचे तक सभी को काल कोठरी में डाल दिया गया। श्री शांता कुमार भी उन सैकड़ों बंदियों में से एक थे तथा इस गिरफ़्तारी के बाद नाहन हम जेल में सदा गौरवान्वित महसूस किया करते।
इस गिरफ़्तारी से जुड़ा प्रसंग तो बहुत लंबा तथा रोचक भी है फिर भी संक्षेप प्रस्तुत है :
स्वयं श्री शांता कुमार जी ने माना- ‘‘मैं तथा कंवर दुर्गा चन्द चाहते थे कि हम जैसे-तैसे पालमपुर पहुंच जाएं। अपनी गिरफ़्तारी पालमपुर पहुंच कर दें। इस समय हम शिमला के दीपक होटल में कुछ कार्यकर्ताओं के साथ चर्चा कर रहे थे। हमें बताया गया कि शिमला के जनसंघ के विधायक दौलत राम चौहान गिरफ़्तार किए जा चुके हैं। शांता कुमार दीपक होटल से निकले माल रोड की ओर गए। वहां से उन्हें मेट्रोपोल पहुंचना था। शॉर्टकट नहीं अपनाया। छाती तान कर पुलिस रिपोर्टिंग रूम के सामने से गुज़रे तो उनकी नज़रें इस जनसंघ के नेता पर थीं।
तभी उन्हें घेर लेने की आगामी स्कीमें बनने लगीं। शांता जी को विश्वास हो गया कि रात होते-होते उन्हें पुलिस अवश्य घेर लेगी। षान्ता जी के सामने सवाल यह था कि वह गिरफ़्तार हो जाएं अथवा अंडरग्राउंड होकर आंदोलन के लिए काम करें। निर्णय लेना उन्हें कठिन लग रहा था। उस समय पार्टी के संगठन मंत्री श्री किशनलाल भी वहीं थे। उनके लिए भी अपने लेवल पर निर्णय लेना मुश्किल लग रहा था। हां, यह ज़रूर सोचा जा रहा था कि 26 जून की रात पुलिस के हत्थे न चढ़ें। अगली रात तक जैसा निर्देश आएगा उसका पालन किया जाएगा। उसे मान लेंगे। उस समय जो भी कार्यकर्ता दीपक होटल में थे वे गिरफ़्तार कर लिए गए थे, ऐसी खबर थी।
षान्ता कुमार जी के कमरे पर ताला लगा था। उस समय वह किसी सुरक्षित जगह पर थे। चाहते तो तीन-चार दिन वहीं सुरक्षित रह सकते थे। यह वह समय था जब पुलिस के साथ उन सब की आंख-मिचोली चल रही थी। शांता जी के एक विश्वसनीय मित्र चाहते थे कि वह डॉक्टर परमार से मनचाहा आदेश ले आएंगे, बस उन्हें दो पंक्तियों का माफीनामा लिखकर देना है किंतु शांता जी ऐसा कभी करने को तैयार न थे, जेल जाना उन्हें मंजूर था, उन्हें अपने परिवार, शरीर, सामान्य सी सुख-सुविधाओं से कुछ लेना देना न था।
38 वर्षीय विधायक शांता कुमार को पारिवारिक कठिनाइयां भी नहीं रोक पाईं थीं। उन्होंने तो सलाखों के पीछे जाने का दृढ़ मन बना रखा था। वह श्रीमती संतोष को पढ़ियारखर में कह आए थे कि वह शिमला से परसों लौट आएंगे किंतु वह परसों लौटे नहीं, लौटे बरसों बाद।
शांता जी नाहन जेल में रहते रमते गए और उनके अध्ययन तथा लेखन ने अच्छी गति पकड़ ली थी। एक के बाद एक पुस्तक लिखी जाने लगी और घर वालों को मिलती रही केवल सांत्वना, जल्दी लौटने की।
नाहन जेल में रहते हुए उन्हें कई बार परिवारजनों की याद आ जाती किंतु वह दृढ़ बन कर उन विचारों को झटक देते। अपने असली लक्ष्य को सामने रखते तथा उसी को अंत तक पूरा करते रहने के संकल्प लेते रहे। श्री शांता कुमार ने कभी हिम्मत नहीं हारी, चाहे उन्हें दो बार मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा हो या केंद्र का बड़ा विभाग, उन्होंने अपने सिद्धांतों से कभी समझौता नहीं किया, यह उनकी बड़ी खूबी रही।