‘जड़ें बाकी हैं अब भी, अभी उजड़ा नहीं हूँ मैं लम्हा ही सही पर, अभी गुजरा नहीं हूं’ – शांता कुमार, पूर्व मुख्यमंत्री एवं केन्द्रीय मंत्री

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‘जड़ें बाकी हैं अब भी, अभी उजड़ा नहीं हूँ
मैं लम्हा ही सही पर, अभी गुजरा नहीं हूं’
– शांता कुमार, पूर्व मुख्यमंत्री एवं केन्द्रीय मंत्री

INDIA REPORTER TODAY

NEELAM SOOD

 This article is originally written by Ms. NEELAM SOOD

A VETERAN WRITER from PALAMPUR

जी हां, उम्र का तकाज़ा कहां वक्त का लिहाज़ करता है परन्तु यही वक्त अगर राजनीति को उस मुकाम तक ले जाए जहाँ राजनीति के महानायक को ठगा हुआ व बोना होने का अहसास ,महसूस करवाने लग जाए तो त्रासदी अपने आप में बहुत बड़ी हो जाती है ।

प्रदेश के दो बार मुख्यमंत्री व केंद्र में मंत्री रह चुके शांता कुमार की राजनीतिक यात्रा में कई उतार चढ़ाव आए ,कभी चुनाव जीते तो कभी चुनाव हारे परन्तु उन के साथ हमेशा यह विडम्बना रही कि जिस किसी को भी उन्होंने राजनीति के पथ पर उंगली पकड़ कर चलना सिखाया वही बाद मे उन का विरोधी बन उन के रास्ते पर कांटे बिछाता गया।

शांता कुमार जी का व्यक्तित्व उस वट वृक्ष की भांति रहा जिस की छत्रछाया में कई विधायक, लोकसभा सांसद, मंत्री तथा मुख्यमंत्री तक चुनाव जीत कर सत्ता मे विराजमान हुए परन्तु त्रासदी यह रही कि वो अधिक समय तक उन के साथ नही चल पाए व पार्टी के भीतर पनप रही गुटबाजी को हवा मिलती गई ।

शांता कुमार का व्यक्तित्व एक लेखक होने के नाते संवेदनशील भी रहा अतः अपने मन के उदगारों को वो चाह कर भी न छुपा पाए व पार्टी के खिलाफ ही कई बार ब्यानबाजी कर उस का खामियाजा भी भुगत चुके हैं ।
1990 में जब मंडल कमीशन आया और स्वर्ण जाती के बच्चों ने इस आरक्षण का अपनी जान की आहुति दे कर विरोध करना शुरू किया तो उस समय श्री शांता कुमार प्रदेश के मुख्यमंत्री थे तब उन का यह ब्यान कि वो अपने प्रदेश मे मंडल कमीशन लागू नहीं करेंगे व मैरिट को ही प्राथमिकता देंगे का एक जाती विशेष के लोगों ने काफी विरोध किया और एक बड़ा वोट बैंक उन के हाथ से निकल गया।

शांता कुमार जी से शायद यह समझने मे भूल हुई कि राजनीति में भावनाओं का कौई सरोकार नहीं होता , यहाँ न तो देश हित देखा जाता है न जनहित, भारतीय राजनीति में तो सिर्फ वोटों की राजनीति होती है अतः बाबरी विध्वंस के बाद उन की सरकार को गिरा दिया गया व जब दोबारा चुनाव हुए तो वह चुनाव हार गए ।

अब इस डैमेज कंट्रोल के लिए वो सरवीण चौधरी को राजनीति में लेकर आए परन्तु विडंबना यह रही कि वो भी पाला बदल कर धूमल गुट में शामिल हो गई।
शांता कुमार जी पालमपुर के कदावर नेता हैं परंतु उन के रहते पालमपुर के साथ जो भेदभाव हुआ वो इस चाय नगरी के सीने पर एक गहरा घाव बन राजनीति के उस बीभत्स चेहरे को उजागर करता है जिसका कौई दीन ईमान नही है।
उन के स्वप्न पालमपुर में अपोलो अस्पताल की स्थापना को जनता का बढ़ चढ़ के सहयोग मिला परन्तु राजनीति के क्रूर खेल ने वो स्वप्न भी छिन्न-भिन्न कर दिया व इस प्रोजेक्ट के पर्याय के रूप में टांडा मैडिकल कॉलेज की स्थापना हो गई जो अनेक त्रुटियों के चलते जनता को बाहरी राज्यों में धक्के खाने के लिए मजबूर करता रहा ।

सरकारी जमीन पर दान लिए गए पैसों से बनी आधी अधूरी इमारत कई वर्षों तक जंग खाने के बाद अंततः धूमल सरकार ने मेहरबानी कर उद्योगपति जे पी को सोंप दी और इस प्रकार एक छोटा-मोटा कारपोरेट अस्पताल चल पड़ा । जयराम ठाकुर को मुख्यमंत्री बनवाने में भी शांता कुमार की अहम भूमिका रही परन्तु यह सरकार भी उनके सपनों को हकीकत में बदलने से नाकाम रही।
शांता कुमार के ही शागिर्द रहे स्वास्थ्य मंत्री विपिन सिंह परमार के राज में मात्र 24करोड़ रुपयों का भुगतान जे पी को कर 100 करोड़ के विवेकानंद अस्पताल का सरकारी अधिग्रहण न होना न केवल जनता के साथ अन्याय है बल्कि चुनावों में यह मुद्दा शांता जी के साथ हो रहे अन्याय का गवाह बन चुनावों के परिणाम को कहां ले जाता है यह देखने वाली बात होगी ।
भाजपा के यह भीष्म पितामह अब किसी भी सिंहासन से नहीं बंधे हैं अतः उम्मीद की जा सकती है कि अब वो अधिक देर तक अपनी भावनाओं को दबा कर नहीं रखेंगे और ठीक गलत पर अपने उन्मुक्त विचार प्रकट करते रहेंगे । शांता कुमार जी जैसे पार्टी के एक बड़े स्तंभ को नजरअंदाज करना भाजपा के लिए घातक ही होगा ।

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