सीखा पर्वतों से मैंने…प्रख्यात कवयित्री श्रीमती सुरेश लता अवस्थी की खूबसूरत रचना

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Smt. SURESH LATA AWASTHI,
CHOWKI KHALET, PALAMPUR
MOB : 8278739443

सीखा पर्वतों से मैंने…

मैने पर्वत की ऊँचाइयों से
सब सहना सीखा है,
सुख- दुख दोनों में सम रह कर,
मैने तो जीना सीखा है।

कभी बादल देते ओलों की मार,
वर्षा करे कभी बूंदों से प्रहार,
झेलते हैं सब रहकर चुपचाप,
मैंने पर्वतों को सदा सिर उठाए देखा है।

सर्द ठंडी हवाएं जिस्म को कम्पाएं,
पर्वतों के ऊपर बर्फ बिखरा जाएँ,
जीवों कोआश्रय देती तेरी गहरी गुफाएँ,
मैंने अमरनाथ बर्फानी का रूप तुझ में देखा है
सुख-दुख दोनों में सम रह कर
मैंने जीना सीखा है।

जब चाहा इस मानव ने तेरी मिट्टी खोदी,
जो जी में आया उसने वही फ़सल बो दी,
दहलाने वाले धमाके सुन कुदरत भी रो दी,
अपनी सुविधा के लिए मानव को
सुरंगे बनाते देखा है,
सुख-दुख दोनों में सम रह कर
मैंने जीना सीखा है।

सर्द ठंडी हवाएँ जिस्म को कँपायें,
पर्वतों के ऊपर बर्फ बिखरा जाएँ,
जीवों को आश्रय देती तेरी गहरी गुफाएं,
मैंने अमरनाथ बर्फानी का रूप तुझ में देखा है
सुख-दुख दोनों में सम रह कर
मैंने जीना सीखा है ।

जब चाहा इस मानव ने तेरी मिट्टी खोदी,
जो जी में आया वही फसल बों दी,
दहलाने वाले धमाके से कुदरत भी रो दी,
अपनी सुविधा के लिए मानव को,
सुरंगे बनाते देखा है
सुख दुख दोनों में सम रह कर,
मैंने जीना सीखा है।

तेरी ठंडी हवाएँ जब बादलों के साथ छाएँ.
धरती पर जल बरसा नवजीवन बन आएं,
मरुभूमि में भी जब फसलें लहलहाएँ,
व्यास और सतलुज में तेरा ही रूप देखा है,
सुख-दुख दोनों में सम रह कर
मैंने जीना सीखा है।

इन्द्र ने क्रोधित होकर उग्र रूप दिखाया,
मुसलाधार वर्षां ने जीवन कठिन बनाया,
गोकुलवासियों को जब कुछ नज़र नहीं आया,
तेरी शरण में जा कर अपना जीवन बचाया,
कृष्ण की उंगली पे धारण हो कर,
तुम्हें उनको बचाते देखा है।
सुख-दुख दोनों में सम रह कर
मैंने जीना सीखा है ।

मैने पर्वत की ऊँचाइयों से
सब सहना सीखा है,
सुख-दुख दोनों में सम रह कर
मैने तो जीना सीखा है।

कभी बादल देते ओलों की मार,
वर्षा करे कभी बूंदों से प्रहार,
झेलते हैं सब रहकर चुपचाप,
मैंने पर्वतों को सदा सिर उठाए देखा है,
सुख-दुख दोनों में सम रह कर
मैंने जीना सीखा है।

सर्द ठंडी हवाएँ जिस्म को कँपायें,
पर्वतों के ऊपर बर्फ बिखरा जाएँ,
जीवों को आश्रय देती तेरी गहरी गुफाएं,
मैंने अमरनाथ बर्फानी का रूप तुझ में देखा है
सुख-दुख दोनों में सम रह कर मैंने जीना सीखा है ।

जब चाहा इस मानव ने तेरी मिट्टी खोदी,
जो जी में आया वही फसल बों दी,
दहलाने वाले धमाके से कुदरत भी रो दी,
अपनी सुविधा के लिए मानव को सुरंगे बनाते देखा है,
सुख-दुख दोनों में सम रह कर मैंने जीना सीखा है।

तेरी ठंडी हवाएँ जब बादलों के साथ छाएँ.
धरती पर जल बरसा नवजीवन बन आएं
मरुभूमि में भी जब फसलें लहलहाएँ,
व्यास और सतलुज में तेरा ही रूप देखा है,
सुख-दुख दोनों में सम रह कर मैंने जीना सीखा है।

इन्द्र ने क्रोधित होकर उग्र रूप दिखाया,
मुसलाधार वर्षां ने जीवन कठिन बनाया,
गोकुलवासियों को जब कुछ नज़र नहीं आया,
तेरी शरण में जा कर अपना जीवन बचाया,
कृष्ण की उंगली पे धारण हो कर
तुम्हें उनको बचाते देखा है।
सुख-दुख दोनों में सम रह कर मैंने जीना सीखा है ।

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