रेत की तरह मुट्ठी से फिसलती ज़िन्दगी : डॉ. सत्येन्द्र शर्मा
फिसलती जिन्दगी
फिसल रही है जिन्दगी ,
ज्यों मुट्ठी से रेत ।
पकड़ न पाओगे कभी ,
अब तो मूरख चेत ।।
अब तो मूरख चेत ,
ईश सुमिरन कर बाबू ।
होती हर दिन दूर ,
जिन्दगी अब बेकाबू ।।
गिनती के दिन शेष ,
देख यह खिसक रही है ।
राम नाम जप रोज़ ,…
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